Thursday, March 1, 2012

सरहद : अनदेखी लकीर

पता नहीं कैसे बन गए
दो मुल्कों में फासले
सीमाओं पर नहीं दिखता
कहीं मिट्टी के रंगों में अंतर
और ना ही बहती है हवा
उल्टी दिशाओं में.
फिर,
किसने खींच दी
हमारे रिश्तों के बीच
खून की लकीरें.
वही पानी का दरिया
यहाँ हमारी प्यास बुझाता है
वहां जाने के बाद
खेतों में पटवन के
काम आता है.
जिस सूरज के उगने पर
जागतें हैं हम
उसी सूरज के चमकने से
खिलखिलाते हैं वो.
जिस चाँद की रौशनी में
नहलाते हैं हम
उसी चांदनी रात में
घर लौटते हैं वो.
कहीं भी तो नहीं
दिखता है अंतर
फिर,
क्यों तरेरतें हैं
एक दूसरे पर नज़रों को.
जिस कपड़े से ढकते हैं
हम अपना तन
उन्हीं कपड़ों से
ढका होता है उनका मन.
जिन अनाजों से
मिटती है हमारी भूख
वही अन्न के दाने
बनाते हैं उन्हें रसूख.
बताओ मुझे एक भी कारण
हो कहीं जमीं आसमान में अंतर
फिर, क्यों
एक दूसरों की
माँ-बेटी करतें हैं एक.

2 comments:

  1. सरहदों से सटी दिलों की खींचतान को अच्छे से बयां किया है लेकिन लास्ट लाइन में जिन भावों को आप लाना चाह रहे थे उनके लिए शब्दों का चुनाव सही नहीं है। पूरी कविता में सरल और सहज शब्द हैं अंत में ..एकदम से मूड बदल देना...इसे अन्यथा न लेते हुए थोड़ा सोच कर देखिए..

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  2. End mein maa-bahan honi chahiye......:P

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