हाड़ गल जायेगा
अगर कम्बल नहीं मिला तो
वो बेचारा मर जायेगा
अगर कम्बल नहीं मिला तो
आखिर कब तक कहेंगे ...
हॉस्पिटल में दम तोड़ते गरीब
ठेला पर पड़ा शव
बिना किसी कफ़न के
पूर्व पछवा किसी की परवाह नहीं
फिर पीछे से आवाज़
शव सड़ जायेगा
उठाओ इसे बिना कफ़न के
पर कब तक...
खादी की गर्माहट से तृप्त
जनता को खरीदने में संलिप्त
चाटुकारों से घिरे
पश्मीना उल के शाल से लिपटे
बाँट दिया कम्बल...
दे दिया कुछ सूखी लकड़ी
जितना धीरे चढ़ रहा था
लाल पानी का नशा
उतनी ही तेजी से जल रही थी लकड़ी
पहर भर भी बिता नहीं कि
अलाव के पास ही लुढका
एक गरीब;
पालीथीन के नशे में धुत्त
नशेडी ने कहा
हाड़ गल जायेगा...
हिमांशु
जिस प्रकार से एक बीज अंकुरण के पश्चात अपनी पहचान बनाता है, मैं भी अपनी लेखनी से शब्दों को आकार देकर अपनी पहचान बनाने में लगा हूं।
Monday, January 11, 2010
Monday, January 4, 2010
हम कहाँ हैं?
हम कहाँ हैं और कहाँ जा रहे हैं; इस पर न तो चिंतित होते हैं और न ही चिन्तनशील बनते हैं. अब लीजिये ना हर रोज कहते हैं कि फलां नेता भ्रष्ट है तो फलां घुसखोर. आखिरकार हम यह क्यों नहीं सोचते हैं कि इसके जड़ में कौन है. गौर से देखें तो हम अपने आप को उस जगह पायेंगे जहाँ उन नेताओं को देखतें हैं. वास्तव मे हम अपनी जिम्मेदारियों से दिन प्रति दिन अपना मूह मोड़ते जा रहें हैं. क्या इस शासन प्रणाली के दूषित होने में हमारा कोई हाथ नहीं? क्या इस शासन प्रणाली को भ्रष्ट बनाने में हम साझेदार नहीं? बिल्कुल हम दोषी हैं; हमारा समाज दोषी है; हमारे सिपहसलार दोषी हैं. आप किस हद तक अपनेको दोषी मानते है..... शायद आपके मूह पड़ ताला जड़ जायेगा!
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