Monday, November 29, 2010

फिर चेहरा रोया



हर बार खिला-खिला नजर आता है
कभी आँखों मे नयापन
तो कभी चेहरे पर ताजगी
पर पता नहीं क्यों
आज उसके चेहरे की रौनक गायब है
जब भी देखा है...

हर बार देखता हूँ उसके चेहरे को
पढने की कोशिश करता हूँ
बार-बार, हर बार
खोजता हूँ राज नयेपन का
फिर ढूंढता हूँ कारण
उसके जीवन मे अकेलेपन का
फिर भी खुश है वह
आसपास के लोगों से
परिवेश से, प्रकृति से
पर, फिर आज गायब है
उसके चेहरे की रौनक
जब भी देखा है...

उम्र की इस तरुणाई मे
यूं अकेला रहना
किसी से दिल की
बातें न कहना
सबकुछ अन्दर ही अन्दर पीना
मानों शिव बनने की
कर ली हो प्रतिज्ञा
पीना चाहती हो सारा विष
इस विषैले समाज का
देना चाहती हो मुक्ति
खुद को नहीं, समाज को
खुद से नहीं, उसके अपने आप से
वह रोती है अन्दर ही अन्दर
पर
पता नहीं क्यों ?
आज उसका चेहरा रोया है.

Saturday, October 16, 2010

समय का प्रवाह

वह समय का प्रवाह ही था
जिसने दिखाया था मुझे रास्ता
जिसने दी थी मुझे एक मंजिल
जिसमे मैंने छुआ था एक किनारा
वह समय का प्रवाह ही था कि...

अभी भी समय का ही प्रवाह है
मैं बहता जा रहा हूँ निरंतर
जैसे बहती हुई नदी
मिलती है समंदर से
लेती है बड़ी आकर
अपने अस्तित्व को खोकर
देती है उस समंदर को अपना सामर्थ्य
क्योंकि बहते रहने से ही
बनी रहती है उसकी सार्थकता
यह समय का ही प्रवाह है कि ...

आज मैं हूँ  उस जगह
जहाँ देखना चाहता था खुद को
अपने अस्तित्व को
जहाँ देना चाहता हूँ अपना सामर्थ्य
दिखाना चाहता हूँ अपनी काबिलियत
महसूसना चाहता हूँ उनका अहसास
देखना चाहता हूँ उनके चेहरों पर
अपने लिये ख़ुशी का इजहार
दूसरों के लिये निश्चिंतता
और फिर बहना चाहता हूँ
अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये
अपने आपको जिन्दा रखने के लिये
दे सकूं उन्हें भी अपना कुछ समय
जिन्हें नहीं देखना चाहता हमारा समाज
जिन्हें घूरती नजरों से भी नहीं देखते हम
आँखों की पलकें भींच लेते हैं
सामने आ गए तो
अनायास मूंह मे भर आता है थूक
उनके पास से गुजरने के बाद
बांयी तरफ देते हैं थूक
रुमाल से चेहरे को साफ कर
निकल पड़ते हैं आगे.
पर समय का प्रवाह
निरंतर बहता है
बनकर सरस और सलिल
यही तो है समय का प्रवाह.

Sunday, October 10, 2010

फिर चला मैं नई राह...

फिर चला मैं नई राह
उन कदमों को पीछे छोड़
करने को कुछ नई सोच
जानी अनजानी राहों पर
फिर चला मैं नई राह...

मुश्किल है उनको समझाना
जिसने बस घर को ही जाना
बाहर निकल कर बाजू भी देख
दूसरों से नज़र मत फेर
बड़ी जालिम लगती है दुनिया
निकला हूँ कुछ सोच कर
फिर चला मैं नई राह...

उबड़ खाबड़ पथरीले हैं
कही चौड़े तो कहीं सकरे हैं
आड़े तिरछे, ऊपर नीचे
खुली आँख कभी आँख मिचे
फिर चला मैं नई राह ...

Tuesday, March 9, 2010

नारी : नई पालिसी

घर मे लड़के का
जन्म लेना
एलआईसी की तरह
सौ प्रतिशत
सुरक्षित भविष्यनिधि है.
हर साल जमा करो
प्रीमियम
पालिसी मेच्योर (शादी करने लायक)
होते ही
बनता है वह कल्पतरु
जितना चाहो
उतना दूह लो
फिर लाओ घर
बहू.
इस बहू ने
फिर बनाया
एक नया टेबल (लड़का / लड़की जनने पर)
जो बनेगा सास- ससुर
के लिये पेंसन प्लान.
फिर क्यों तिरस्कृत
करते हैं इस
नारी को
जो हर साल
तैयार करती है
जीवन बीमा की
नई पालिसी.

Monday, February 1, 2010

हे कलियुग !

लड़ रहें हैं
मड रहें हैं
आपस में ही
सड़ रहें हैं
क्या होगा
आने वाली
नस्लों का
खेतों मे लहलहाती
फसलों का
आने वाले
मेहमानों का
जाने वाले
अपनो का .
कृष्ण आने
से रहें
भीष्म बनने
से रहे
विदुर की नीति
उसी काल  तक
गुरु दक्षिणा
कुछ काल तक
शकुनी की
पैदाइश  
बेईमान, भ्रष्ट
खद्दरधारी
आगे- पीछे
बन्दूकधारी
मेहनतकश किसान
उनका न कोई दाम
जब चाहो
जैसे चाहो
मरना होगा
इन्ही को.
न मुआवजा
की मांग
न सरकारी
नौकरी का प्रावधान .
धरती के पुत्र
उसी को समर्पित
हे कलियुग !
तुम्हे प्रणाम .

हिमांशु

Monday, January 11, 2010

हाड़ गल जायेगा

हाड़ गल जायेगा
अगर कम्बल नहीं मिला तो
वो बेचारा मर जायेगा
अगर कम्बल नहीं मिला तो
आखिर कब तक कहेंगे ...

हॉस्पिटल में दम तोड़ते गरीब
ठेला पर पड़ा शव
बिना किसी कफ़न के
पूर्व पछवा किसी की परवाह नहीं
फिर पीछे से आवाज़
शव सड़ जायेगा
उठाओ इसे बिना कफ़न के
पर कब तक...

खादी की गर्माहट से तृप्त
जनता को खरीदने में संलिप्त
चाटुकारों से घिरे
पश्मीना उल के शाल से लिपटे
बाँट दिया कम्बल...
दे दिया कुछ सूखी लकड़ी
जितना धीरे चढ़ रहा था
लाल पानी का नशा
उतनी ही तेजी से जल रही थी लकड़ी
पहर भर भी बिता नहीं कि
अलाव के पास ही लुढका
एक गरीब;
पालीथीन के नशे में धुत्त
नशेडी ने कहा
हाड़ गल जायेगा...

हिमांशु

Monday, January 4, 2010

हम कहाँ हैं?

हम कहाँ हैं और कहाँ जा रहे हैं; इस पर न तो चिंतित होते हैं और न ही चिन्तनशील बनते हैं. अब लीजिये ना हर रोज कहते हैं कि फलां नेता भ्रष्ट है तो फलां घुसखोर. आखिरकार हम यह क्यों नहीं सोचते हैं कि इसके जड़ में कौन है. गौर से देखें तो हम अपने आप को उस जगह पायेंगे जहाँ उन नेताओं को देखतें हैं. वास्तव मे हम अपनी जिम्मेदारियों से दिन प्रति दिन अपना मूह मोड़ते जा रहें हैं. क्या इस शासन प्रणाली के दूषित होने में हमारा कोई हाथ नहीं? क्या इस शासन प्रणाली को भ्रष्ट बनाने में हम साझेदार नहीं? बिल्कुल हम दोषी हैं; हमारा समाज दोषी है; हमारे सिपहसलार दोषी हैं. आप किस हद तक अपनेको दोषी मानते है..... शायद आपके मूह पड़ ताला जड़ जायेगा!