Tuesday, January 25, 2011

नया दौर

रुपयों के लेन- देन में
टूट रहें हैं रिश्ते
मानवता अब बिक रही
नून- रोती से भी सस्ते.
कौन अपना और कौन पराया
फर्क करना हो गया आसान
हरे- हरे नोटों से है
तौला जा रहा इन्सान.
न तो वैसे संत हैं
और न ही वैसे भंते
क्योंकि
मानवता अब बिक रही
नून- रोती से भी सस्ते.

कहाँ गयी वो माटी की खुशबू
कहाँ गया वो रंग
खोजने पर मिलता यहाँ
गूगल सर्च इंजन के संग.
बीच नदी में बना रहे
घूमता रेस्टोरेंट
पर्वतों पर चढ़ा रहे
नित नए-नए रंग.
दधिची नाम सुनते ही
हो जाते सब सकते
क्योंकि
मानवता अब बिक रही
नून-रोटी से भी सस्ते.

मंदिर-मस्जिद लड़ रहे
पनप रहा हैवान
धोखा दे इमान को
आगे बढ रहा इन्सान.
जाते रोज सत्संग में
पाते उत्तम ज्ञान
टूट रहे हैं घर-द्वार सब
नहीं तनिक भी ध्यान
बड़े- बुजुर्ग कहा करते थे
और कह गए मरते-मरते
कि
मानवता अब बिक रही
नून-रोटी से भी सस्ते.