Sunday, December 20, 2009

कब तक ...


इस बेचेनी को
कब तक झेलेगी
पता नहीं... पर,
रोज सुबह उठना
खुद को तैयार करना
उन नजरों से, जो
रोज - रोज टकरातीं हैं
अनायास उनसे, जो घूरती हैं
उसके गर्दन से ...
हर बार आवाज़ लगाती है
बिक जाये माल,
पलेगा अपना और परिवार का पेट
महाजन भी ना तो घूरेगा
और ना ही बोलेगा आना ...
बच्चे अलग रोते होंगे
पति भी पीकर होगा
किसी गन्दी नाली  मे पड़ा
पर यहाँ तो तमाशा बनकर
रही है बेच माल और...

हिमांशु