Monday, May 14, 2012

माँ और बच्चा

जन्म लेने से पहले ही
पेट मे लात मारता  है बच्चा
बिना परवाह किये ही
अपना हिस्सा लेता है बच्चा।
जन्म लेने के बाद माँ की
छाती से चिपकता है बच्चा
जिंदा रहने के लिए भी
माँ का दूध पिता है बच्चा।
वर्णमाला सीखने  से पहले
माँ बोलता है बच्चा
माँ सामने नहीं देखकर
रोने लगता है बच्चा।
माँ की दो अंगुलियाँ थामकर
धरती पर पग धरता  है बच्चा
रिश्ते नाते इनको भी
माँ से ही सीखता है बच्चा।
इमदाद के लिए भी
माँ पुकारता है बच्चा
जब दौड़ती है माँ तो
खिलखिलाता है बच्चा।

बच्चे को तैयार कर
स्कूल भेजती है माँ
हल्की  चोट लगने पर भी
रोने लगती है माँ।
भूख प्यास सबकी
चिंता करती है माँ
भूखी रहकर भी बच्चों का
पेट पलती है माँ।
बच्चे को हर पल बड़ा
होता देखती है माँ
देर से घर आने को
खूब समझती है माँ।
सच बोलने मे  भी
झूठ पकडती है माँ
ठेस पहूँचाने पर भी
गले लगाती है माँ।

घर मे  बहू आने पर
चितचोर होती है माँ
आपनी अनदेखी पर भी
चुप रहती है माँ।
अब चार शाम की जगह
दो शाम खाना खाती है माँ
स्वर्ग जैसे घर की जगह
ओल्ड एज होम में दिखती है माँ।
चेहरे पर शून्य भाव लिए
राम नाम भजती  है माँ
बेटा-बहू  की लड़ाई का
मर्म जानती है माँ। 

Thursday, March 29, 2012

सपनों की उड़ान

सपनों को पंख न जाने
कब से लगने लगे थे.
मैंने तो उसे बस देखने
की कोशिश मात्र की थी.
न जाने किस रात को
अचानक से तारों के बीच
जा पहुंचा था मैं.
तैरने लगा था अपने ही
बुने हुए सुनहरे सपनों में
लग रहा था जैसे
सूरज कर रहा था
मेरे ही आने की प्रतीक्षा.
मुझे देखते ही खिल उठा वो
इस नीले आसमान में.
मेरे पलक झपकते ही
छुप गया वो बादलों की ओट में.
मेरे थकने के साथ ही
वो भी ढलने लगा
या फिर यूं कहिये
चाँद को आने देना चाह रहा था
रात होने देने के लिए
ताकि हर कोई देख सके
अपने सपनों की जहाँ को.

Thursday, March 1, 2012

सरहद : अनदेखी लकीर

पता नहीं कैसे बन गए
दो मुल्कों में फासले
सीमाओं पर नहीं दिखता
कहीं मिट्टी के रंगों में अंतर
और ना ही बहती है हवा
उल्टी दिशाओं में.
फिर,
किसने खींच दी
हमारे रिश्तों के बीच
खून की लकीरें.
वही पानी का दरिया
यहाँ हमारी प्यास बुझाता है
वहां जाने के बाद
खेतों में पटवन के
काम आता है.
जिस सूरज के उगने पर
जागतें हैं हम
उसी सूरज के चमकने से
खिलखिलाते हैं वो.
जिस चाँद की रौशनी में
नहलाते हैं हम
उसी चांदनी रात में
घर लौटते हैं वो.
कहीं भी तो नहीं
दिखता है अंतर
फिर,
क्यों तरेरतें हैं
एक दूसरे पर नज़रों को.
जिस कपड़े से ढकते हैं
हम अपना तन
उन्हीं कपड़ों से
ढका होता है उनका मन.
जिन अनाजों से
मिटती है हमारी भूख
वही अन्न के दाने
बनाते हैं उन्हें रसूख.
बताओ मुझे एक भी कारण
हो कहीं जमीं आसमान में अंतर
फिर, क्यों
एक दूसरों की
माँ-बेटी करतें हैं एक.

Tuesday, February 28, 2012

समाज की कसौटी

लाज के मारे झुकी हुई आँखें
पूरे मुखड़े को ढका हुआ
सिर पर चढ़ा पल्लू
कलाई से केहुनी तक
चढ़ी हुई कांच की
सतरंगी चूड़ियाँ
पैर की अंगुरियों में
कसी हुई चमकती बिछिया
हमारी सभ्यता की सांचे में
कसी हुई नारी की
यही परिभाषा है.
पर, इन्हें देखने वालों का
कुछ नजरिया भी अलहदा है
मुलायम कूचियों से
खिची गई रेखा
चेहरे पर अंगूठे
के सहारे बनाया दाग
हाथ के छिटकने से
तस्वीर पर पड़ी छीटें
कहीं आँखों में लगे
मोटे काजर को पसारते
मानों दर्द के ढबकने से
बाहर आते-आते रह गए।
किसी एक ने देखा तो
दर्द को महसूसते
चित्रकार को बधाई दी
प्रदर्शनी देखने आई भीड़ भी
मर्दानगी का दामन
छोड़ नहीं पाई
दबी, कुचली और फिर
वारांगना या वारवधू
कहने पर भी "ना' मर्दों का
मुंह बंद नहीं करा पायी।