Thursday, March 29, 2012

सपनों की उड़ान

सपनों को पंख न जाने
कब से लगने लगे थे.
मैंने तो उसे बस देखने
की कोशिश मात्र की थी.
न जाने किस रात को
अचानक से तारों के बीच
जा पहुंचा था मैं.
तैरने लगा था अपने ही
बुने हुए सुनहरे सपनों में
लग रहा था जैसे
सूरज कर रहा था
मेरे ही आने की प्रतीक्षा.
मुझे देखते ही खिल उठा वो
इस नीले आसमान में.
मेरे पलक झपकते ही
छुप गया वो बादलों की ओट में.
मेरे थकने के साथ ही
वो भी ढलने लगा
या फिर यूं कहिये
चाँद को आने देना चाह रहा था
रात होने देने के लिए
ताकि हर कोई देख सके
अपने सपनों की जहाँ को.

Thursday, March 1, 2012

सरहद : अनदेखी लकीर

पता नहीं कैसे बन गए
दो मुल्कों में फासले
सीमाओं पर नहीं दिखता
कहीं मिट्टी के रंगों में अंतर
और ना ही बहती है हवा
उल्टी दिशाओं में.
फिर,
किसने खींच दी
हमारे रिश्तों के बीच
खून की लकीरें.
वही पानी का दरिया
यहाँ हमारी प्यास बुझाता है
वहां जाने के बाद
खेतों में पटवन के
काम आता है.
जिस सूरज के उगने पर
जागतें हैं हम
उसी सूरज के चमकने से
खिलखिलाते हैं वो.
जिस चाँद की रौशनी में
नहलाते हैं हम
उसी चांदनी रात में
घर लौटते हैं वो.
कहीं भी तो नहीं
दिखता है अंतर
फिर,
क्यों तरेरतें हैं
एक दूसरे पर नज़रों को.
जिस कपड़े से ढकते हैं
हम अपना तन
उन्हीं कपड़ों से
ढका होता है उनका मन.
जिन अनाजों से
मिटती है हमारी भूख
वही अन्न के दाने
बनाते हैं उन्हें रसूख.
बताओ मुझे एक भी कारण
हो कहीं जमीं आसमान में अंतर
फिर, क्यों
एक दूसरों की
माँ-बेटी करतें हैं एक.