Friday, September 16, 2011

कोर्ट में हिंदी का बयान

हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार
पता नहीं,
क्या है मेरा अपराध.
कई भाषाओं को
दिया है मैंने जन्म
दिया उन्हें संसार में
फैल जाने का ज्ञान
फिर भी, मुझे
सहना पड़ रहा है अपमान.
यहाँ इस कठघरे में
खड़ी मैं
सोच रही हूँ
जीवित रहने का उपाय
वहां मेरे पोषक
पहना रहे मुझे
फूलों का हार
मेरी इज्जत को बार-बार
करते हैं तार-तार
साल के पूरे दिन
मैं रहती उनके साथ
हुज़ूर, माई-बाप.
दुहाई है सरकार
मैं जो कहूँगी
सच कहूँगी
सच के सिवा
कुछ नहीं कहूँगी
मुझे याद नहीं
किसी भाषा का जन्मदिन
न ही मुझे याद
किसी भाषा की सालगिरह
हाँ, शुभ कर्मों के लिए
लोग उलटते हैं पंचांग
देखते हैं दंड और पल
फिर भी,
आज मैं खड़ी हूँ निर्बल.
कोई सहारा नहीं देना चाहता
बस यूं ही
कागज पर पड़ा देखना चाहता
अस्पताल में उस मरीज की तरह
जो अंतिम साँस के लिए
कर रहा हो जिरह
हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार.
मैं मरना नहीं चाहती
बेमौत
पर, सजा मिलने से पहले
पूछना चाहती हूँ कि
कब भारत और इंडिया
में मिटेगा भेद
कब लोगों का
हिंदी से ही भरेगा पेट.

Tuesday, September 6, 2011

चश्मा : आर- पार

यहाँ ज़हरीली घास है 'कांग्रेस'
बन्दूक से निकली गोली की तरह
प्राण लेने  को आतुर है घास
जैसे कभी थी सोनिया की सास
जेलों में भरकर किया था नज़रबंद
वैसी ही अब दिख रही दबंग
अनर्गल आरोपों को मढ़ कर 
हाथ-पांव जोड़ कर तो कभी गर्दन पकड़ कर
दिखा रही अपनी सियासी ताकत
कर के हर तरह का त्राटक 
कोई कुछ भी बोले 
जानकर भी मुँह न खोले 
करवा कर दंगा और फसाद 
बांटती है मुआवजे का प्रसाद 
पता नहीं खून है या पानी 
रग-रग में बसी है बईमानी
सड़कों पर दिख रही है भीड़
हर किसी को हो रही है पीर
जाने कब डोलेगा यह आसन 
अब तो राजनीति है मरन्नासन
कभी इस डाल पर बैठ गाते हैं राग 
तो कभी उस डाल पर जाते हैं भाग
मलाई की मति परत देखकर 
चारा का विटामिन भी सोंखकर 
पाते ही मंत्रालय की कुर्सी 
बन जाते हैं गाय जैसे जर्सी 
सब कुछ चलता है मंथर गति से 
जैसे मारे गए हों मति से
हो-हंगामे में चलता है सदन 
नंगा हो रहा संविधान का बदन 
क्यों चिंता करें ये माटी के मूरत 
जब पांच साल बाद ही दिखानी है सूरत