वह समय का प्रवाह ही था
जिसने दिखाया था मुझे रास्ता
जिसने दी थी मुझे एक मंजिल
जिसमे मैंने छुआ था एक किनारा
वह समय का प्रवाह ही था कि...
अभी भी समय का ही प्रवाह है
मैं बहता जा रहा हूँ निरंतर
जैसे बहती हुई नदी
मिलती है समंदर से
लेती है बड़ी आकर
अपने अस्तित्व को खोकर
देती है उस समंदर को अपना सामर्थ्य
क्योंकि बहते रहने से ही
बनी रहती है उसकी सार्थकता
यह समय का ही प्रवाह है कि ...
आज मैं हूँ उस जगह
जहाँ देखना चाहता था खुद को
अपने अस्तित्व को
जहाँ देना चाहता हूँ अपना सामर्थ्य
दिखाना चाहता हूँ अपनी काबिलियत
महसूसना चाहता हूँ उनका अहसास
देखना चाहता हूँ उनके चेहरों पर
अपने लिये ख़ुशी का इजहार
दूसरों के लिये निश्चिंतता
और फिर बहना चाहता हूँ
अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये
अपने आपको जिन्दा रखने के लिये
दे सकूं उन्हें भी अपना कुछ समय
जिन्हें नहीं देखना चाहता हमारा समाज
जिन्हें घूरती नजरों से भी नहीं देखते हम
आँखों की पलकें भींच लेते हैं
सामने आ गए तो
अनायास मूंह मे भर आता है थूक
उनके पास से गुजरने के बाद
बांयी तरफ देते हैं थूक
रुमाल से चेहरे को साफ कर
निकल पड़ते हैं आगे.
पर समय का प्रवाह
निरंतर बहता है
बनकर सरस और सलिल
यही तो है समय का प्रवाह.
जिस प्रकार से एक बीज अंकुरण के पश्चात अपनी पहचान बनाता है, मैं भी अपनी लेखनी से शब्दों को आकार देकर अपनी पहचान बनाने में लगा हूं।
Saturday, October 16, 2010
Sunday, October 10, 2010
फिर चला मैं नई राह...
फिर चला मैं नई राह
उन कदमों को पीछे छोड़
करने को कुछ नई सोच
जानी अनजानी राहों पर
फिर चला मैं नई राह...
मुश्किल है उनको समझाना
जिसने बस घर को ही जाना
बाहर निकल कर बाजू भी देख
दूसरों से नज़र मत फेर
बड़ी जालिम लगती है दुनिया
निकला हूँ कुछ सोच कर
फिर चला मैं नई राह...
उबड़ खाबड़ पथरीले हैं
कही चौड़े तो कहीं सकरे हैं
आड़े तिरछे, ऊपर नीचे
खुली आँख कभी आँख मिचे
फिर चला मैं नई राह ...
उन कदमों को पीछे छोड़
करने को कुछ नई सोच
जानी अनजानी राहों पर
फिर चला मैं नई राह...
मुश्किल है उनको समझाना
जिसने बस घर को ही जाना
बाहर निकल कर बाजू भी देख
दूसरों से नज़र मत फेर
बड़ी जालिम लगती है दुनिया
निकला हूँ कुछ सोच कर
फिर चला मैं नई राह...
उबड़ खाबड़ पथरीले हैं
कही चौड़े तो कहीं सकरे हैं
आड़े तिरछे, ऊपर नीचे
खुली आँख कभी आँख मिचे
फिर चला मैं नई राह ...
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