Sunday, October 10, 2010

फिर चला मैं नई राह...

फिर चला मैं नई राह
उन कदमों को पीछे छोड़
करने को कुछ नई सोच
जानी अनजानी राहों पर
फिर चला मैं नई राह...

मुश्किल है उनको समझाना
जिसने बस घर को ही जाना
बाहर निकल कर बाजू भी देख
दूसरों से नज़र मत फेर
बड़ी जालिम लगती है दुनिया
निकला हूँ कुछ सोच कर
फिर चला मैं नई राह...

उबड़ खाबड़ पथरीले हैं
कही चौड़े तो कहीं सकरे हैं
आड़े तिरछे, ऊपर नीचे
खुली आँख कभी आँख मिचे
फिर चला मैं नई राह ...

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