Tuesday, February 28, 2012

समाज की कसौटी

लाज के मारे झुकी हुई आँखें
पूरे मुखड़े को ढका हुआ
सिर पर चढ़ा पल्लू
कलाई से केहुनी तक
चढ़ी हुई कांच की
सतरंगी चूड़ियाँ
पैर की अंगुरियों में
कसी हुई चमकती बिछिया
हमारी सभ्यता की सांचे में
कसी हुई नारी की
यही परिभाषा है.
पर, इन्हें देखने वालों का
कुछ नजरिया भी अलहदा है
मुलायम कूचियों से
खिची गई रेखा
चेहरे पर अंगूठे
के सहारे बनाया दाग
हाथ के छिटकने से
तस्वीर पर पड़ी छीटें
कहीं आँखों में लगे
मोटे काजर को पसारते
मानों दर्द के ढबकने से
बाहर आते-आते रह गए।
किसी एक ने देखा तो
दर्द को महसूसते
चित्रकार को बधाई दी
प्रदर्शनी देखने आई भीड़ भी
मर्दानगी का दामन
छोड़ नहीं पाई
दबी, कुचली और फिर
वारांगना या वारवधू
कहने पर भी "ना' मर्दों का
मुंह बंद नहीं करा पायी। 

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