Thursday, December 22, 2011

देश की दिशा

टू जी, अन्ना औए एफडीआई
बहरी हो गयी कांग्रेस (आई )
नहीं सुन रही जनता की आवाज़
उसे लग रहा सबकुछ बकवास.
गरीब होने की बदल गयी परिभाषा
फिर भी रखती उसी से आशा.
राजा, कनिमोझी या कलमाड़ी
देश को समझा खुद की थाती.
जनता मांग रही अधिकार
बदले मिल रह मात्र प्रतिकार.
क्या हो गया  इस देश को
नेता बदल रहे खुद भेस को
घोटालों में नाम है इनका
गरीब हो रहा तिनका- तिनका
बड़ों- बड़ों को धुल चटाया
मिटटी मिला आतंक मिटाया
पलट कर देखो जरा इतिहास
फिर होगा तुम्हें विश्वास
जेलों में जब होंगे भ्रष्टाचारी
अवाम होगा फिर आभारी.          

Friday, September 16, 2011

कोर्ट में हिंदी का बयान

हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार
पता नहीं,
क्या है मेरा अपराध.
कई भाषाओं को
दिया है मैंने जन्म
दिया उन्हें संसार में
फैल जाने का ज्ञान
फिर भी, मुझे
सहना पड़ रहा है अपमान.
यहाँ इस कठघरे में
खड़ी मैं
सोच रही हूँ
जीवित रहने का उपाय
वहां मेरे पोषक
पहना रहे मुझे
फूलों का हार
मेरी इज्जत को बार-बार
करते हैं तार-तार
साल के पूरे दिन
मैं रहती उनके साथ
हुज़ूर, माई-बाप.
दुहाई है सरकार
मैं जो कहूँगी
सच कहूँगी
सच के सिवा
कुछ नहीं कहूँगी
मुझे याद नहीं
किसी भाषा का जन्मदिन
न ही मुझे याद
किसी भाषा की सालगिरह
हाँ, शुभ कर्मों के लिए
लोग उलटते हैं पंचांग
देखते हैं दंड और पल
फिर भी,
आज मैं खड़ी हूँ निर्बल.
कोई सहारा नहीं देना चाहता
बस यूं ही
कागज पर पड़ा देखना चाहता
अस्पताल में उस मरीज की तरह
जो अंतिम साँस के लिए
कर रहा हो जिरह
हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार.
मैं मरना नहीं चाहती
बेमौत
पर, सजा मिलने से पहले
पूछना चाहती हूँ कि
कब भारत और इंडिया
में मिटेगा भेद
कब लोगों का
हिंदी से ही भरेगा पेट.

Tuesday, September 6, 2011

चश्मा : आर- पार

यहाँ ज़हरीली घास है 'कांग्रेस'
बन्दूक से निकली गोली की तरह
प्राण लेने  को आतुर है घास
जैसे कभी थी सोनिया की सास
जेलों में भरकर किया था नज़रबंद
वैसी ही अब दिख रही दबंग
अनर्गल आरोपों को मढ़ कर 
हाथ-पांव जोड़ कर तो कभी गर्दन पकड़ कर
दिखा रही अपनी सियासी ताकत
कर के हर तरह का त्राटक 
कोई कुछ भी बोले 
जानकर भी मुँह न खोले 
करवा कर दंगा और फसाद 
बांटती है मुआवजे का प्रसाद 
पता नहीं खून है या पानी 
रग-रग में बसी है बईमानी
सड़कों पर दिख रही है भीड़
हर किसी को हो रही है पीर
जाने कब डोलेगा यह आसन 
अब तो राजनीति है मरन्नासन
कभी इस डाल पर बैठ गाते हैं राग 
तो कभी उस डाल पर जाते हैं भाग
मलाई की मति परत देखकर 
चारा का विटामिन भी सोंखकर 
पाते ही मंत्रालय की कुर्सी 
बन जाते हैं गाय जैसे जर्सी 
सब कुछ चलता है मंथर गति से 
जैसे मारे गए हों मति से
हो-हंगामे में चलता है सदन 
नंगा हो रहा संविधान का बदन 
क्यों चिंता करें ये माटी के मूरत 
जब पांच साल बाद ही दिखानी है सूरत 

Saturday, February 5, 2011

बेचैनी

कैसा होता दिन है
और कैसी होती रात
अपना तो हर जगह ठिकाना
करता हरदम बात.

करता हरदम बात मैं
रहता हर पल खुश
जीने का यही मूल मंत्र है
नहीं तो जीवन शूल.

जीवन जो शूल बना तो
नहीं किसी के काम
इससे तो पशु अच्छे है
जिन चमड़ी के दाम.

मत जाओ इसके रंग पर
रत रहो अपने कर्म
पालो नहीं किसी भ्रम को
जानो उनका मर्म.

कम ज्यादा तो रीत है
नहीं तो छत कि भीत
जिस पर अच्छा रंग चढ़ाओ
नयन को करता शीत.

नयन जो शीतल होगा जिनका
सुन्दर होगा सपना उनका
सपनों से जगते उम्मीद
तभी तो लेते दुनियां जीत.

Tuesday, January 25, 2011

नया दौर

रुपयों के लेन- देन में
टूट रहें हैं रिश्ते
मानवता अब बिक रही
नून- रोती से भी सस्ते.
कौन अपना और कौन पराया
फर्क करना हो गया आसान
हरे- हरे नोटों से है
तौला जा रहा इन्सान.
न तो वैसे संत हैं
और न ही वैसे भंते
क्योंकि
मानवता अब बिक रही
नून- रोती से भी सस्ते.

कहाँ गयी वो माटी की खुशबू
कहाँ गया वो रंग
खोजने पर मिलता यहाँ
गूगल सर्च इंजन के संग.
बीच नदी में बना रहे
घूमता रेस्टोरेंट
पर्वतों पर चढ़ा रहे
नित नए-नए रंग.
दधिची नाम सुनते ही
हो जाते सब सकते
क्योंकि
मानवता अब बिक रही
नून-रोटी से भी सस्ते.

मंदिर-मस्जिद लड़ रहे
पनप रहा हैवान
धोखा दे इमान को
आगे बढ रहा इन्सान.
जाते रोज सत्संग में
पाते उत्तम ज्ञान
टूट रहे हैं घर-द्वार सब
नहीं तनिक भी ध्यान
बड़े- बुजुर्ग कहा करते थे
और कह गए मरते-मरते
कि
मानवता अब बिक रही
नून-रोटी से भी सस्ते.