Monday, November 29, 2010

फिर चेहरा रोया



हर बार खिला-खिला नजर आता है
कभी आँखों मे नयापन
तो कभी चेहरे पर ताजगी
पर पता नहीं क्यों
आज उसके चेहरे की रौनक गायब है
जब भी देखा है...

हर बार देखता हूँ उसके चेहरे को
पढने की कोशिश करता हूँ
बार-बार, हर बार
खोजता हूँ राज नयेपन का
फिर ढूंढता हूँ कारण
उसके जीवन मे अकेलेपन का
फिर भी खुश है वह
आसपास के लोगों से
परिवेश से, प्रकृति से
पर, फिर आज गायब है
उसके चेहरे की रौनक
जब भी देखा है...

उम्र की इस तरुणाई मे
यूं अकेला रहना
किसी से दिल की
बातें न कहना
सबकुछ अन्दर ही अन्दर पीना
मानों शिव बनने की
कर ली हो प्रतिज्ञा
पीना चाहती हो सारा विष
इस विषैले समाज का
देना चाहती हो मुक्ति
खुद को नहीं, समाज को
खुद से नहीं, उसके अपने आप से
वह रोती है अन्दर ही अन्दर
पर
पता नहीं क्यों ?
आज उसका चेहरा रोया है.

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