जिस प्रकार से एक बीज अंकुरण के पश्चात अपनी पहचान बनाता है, मैं भी अपनी लेखनी से शब्दों को आकार देकर अपनी पहचान बनाने में लगा हूं।
Monday, January 4, 2010
हम कहाँ हैं?
हम कहाँ हैं और कहाँ जा रहे हैं; इस पर न तो चिंतित होते हैं और न ही चिन्तनशील बनते हैं. अब लीजिये ना हर रोज कहते हैं कि फलां नेता भ्रष्ट है तो फलां घुसखोर. आखिरकार हम यह क्यों नहीं सोचते हैं कि इसके जड़ में कौन है. गौर से देखें तो हम अपने आप को उस जगह पायेंगे जहाँ उन नेताओं को देखतें हैं. वास्तव मे हम अपनी जिम्मेदारियों से दिन प्रति दिन अपना मूह मोड़ते जा रहें हैं. क्या इस शासन प्रणाली के दूषित होने में हमारा कोई हाथ नहीं? क्या इस शासन प्रणाली को भ्रष्ट बनाने में हम साझेदार नहीं? बिल्कुल हम दोषी हैं; हमारा समाज दोषी है; हमारे सिपहसलार दोषी हैं. आप किस हद तक अपनेको दोषी मानते है..... शायद आपके मूह पड़ ताला जड़ जायेगा!
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soch acchi hai. vishay bhi accha hai. is per lambi bahas ki jarurat hai.
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