उज्जैन में लगे सिंहस्थ कुंभ में संतों की भिड़ंत और उसमें भी गोलीबारी ने तो उनके होने की परिभाषा ही बदल डाली। अब तक पढ़ता आया हूं - जात न पूछो साधु की, पूछ लीजो ज्ञान। मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान। लेकिन यहां यह क्या उपाधि लेने-देने से लेकर पहला स्नान करने तक की बात पर ही संतों ने तमंचे निकाल लिए और करा दिया प्रशासन को डिस्को। भाई गंगा-जमुनी की संस्कृति वाले इस देश में तो पहले आप, नहीं पहले आप वाली बात रही है। यह बात भी किसी आम आदमी ने कही बल्कि संतों ने ही आम आदमी को समझाया था। फिर यही लोग बवेला मचाने लगे हैं। सब गडमड हो रहा है। ये संत अपने नाम के आगे श्री श्री 1008, जगत्गुरु, शंकराचार्य, करपात्री, बापू, संत, महामंडलेश्वर और न जाने कौन-कौन सा प्रत्यय और उपसर्ग जोड़े जा रहे हैं। ना तो इन्हें कोई रोकने वाला है और ना ही कोई बोलने वाला। भला इन्हें कुछ भी कहने का खतरा कौन मोल ले।
कुंभ ही क्यों
मैं आज तक यह नहीं समझ पाया कि आखिर कुंभ के मेले में ही इनकी भिड़ंत क्यों होती है? जबकि सांसरिक ज्ञान के अनुसार, कुंभ के मेले में अक्सर भाई बिछड़े होते हैं। ये संत तो स्वयं घरवालों से बिछड़कर यहां आते हैं तो फिर लड़ाई किस बात की? पद्वी पाने या नाम धारण करने की प्राचीन और बेहतर परम्परा शास्त्रार्थ की रही है, लेकिन अब ऐसा कुछ देखने को नहीं मिल रहा है।
पहले परोकार, अब कारोबार
संत हमेशा से परोकारी रहे हैं, लेकिन बदलते परिवेश ने उन्हें कारोबारी बना दिया है। उदाहरण ना भी दूं तो चार-पांच के नाम तो आप स्वयं तय कर लेंगे जिनके कारोबार भारतीय रुपए में छोड़ दें तो डॉलर में भी करोड़ों डॉलर के जरूर होंगे। कोई सोने-चांदी से लकदक है तो कोई अगरबत्ती-धूप-चंदन और मैग्जिन से ही इतनी कमाई कर रहा है कि उनका वैभव सात समंदर पार तक दिखता है। कुंभ में ही देखिए महापंडितों के पास विदेशी गाडिय़ों की संख्या किसी फिल्मी सितारे या फिर नामी-गिरामी खिलाडिय़ों से कतई कम नहीं है। दान-पुण्य का सिलसिला हमारे यहां इतना है कि हम मूर्तियों को भी स्वर्णजडि़त कर देते हैं ये तो फिर भी जीते-जागते इंसान हैं!
तो हम किसे पूजें?
हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल कि किसे पूजें? कोई संत दुष्कर्म के आरोप में तो कोई बम विस्फोट के आरोप में जेल में सजा काट रहे हैं। कई और बाबाओं पर कुछ ना कुछ आरोप लगते रहे हैं। कुछ बाबा ऐसे हैं जो ख्याति अर्जित करने के लिए ऐसे बयान दे डालते हैं जिनका ना तो सिर होता और ना ही कोई पैर। ऐसी बातें समाज को समरस कभी नहीं बना सकतीं। और तो और कोई फिल्म बनाकर अपनी कीर्ति स्थापित करना चाहते हैं एक साध्वी ऐसी हैं जो भगवान को रिझाते-रिझाते भक्तों की गोद में बैठ उन्हें रिझाने लगती हैं। भला ऐसे में अनुयायी किस प्रकार का ज्ञान अर्जन करेंगे और किसे पूजेंगे?